कहानी,विशाल भारद्वाज,इंस्टाग्राम वाला इश्क़
यू तो जमाना चल रहा था जोरो शोरो से, पर हम थे की उस जमाने से तेज दौड़ने की
जद्दोजेह्त में लगे थे। छोटे होते हुए भी बड़े होने लगे थे। ना जाने कैसे उस छठी और
सातवी कक्षा में इश्क़ के ताज बुनने लगे थे शायद ये टीवी पर इश्क़ वाली फिल्मो का
असर हो या शायद मौसम की कुछ मांग जो पढाई के ज़माने में भी हरामखोरी करने लगे थे।
मार लिए थे एक बार क्लास टीचर के रजिस्टर से अपने सपनो के
परी का नंबर पर उस ज़माने में वो नंबर ससुर जी के हुआ करते थे। सोचते रहते थे तिकड़म
कैसी निकाली जाए और एक रूपए का सिक्का डालने वाले फोन के चक्कर फिर यू ही लगा लिया
करते थे।
एक दिन रात भर सोचने के बाद फिर निकाल लिया था तिकड़म और
निकल लिए थे अगले दिन प्रेम युद्ध में अर्जुन बन कर। सोच लिया था आज बात करके
रहेंगे हम और घुमा दिए थे फोन उसकी सहेली बन कर।
बज रही थी रिंगटोन फोन की कानो में तेज हो रही थी धड़कने
सीने में और ज़माने में।
पर होना क्या था उठा लिया था ससुर जी ने फोन जो होना ही था
और बात घुमाने की कला हमने भी फिल्मो से सीख ही लिया था।
“हैलो” आ रही थी आवाज एक तरफ से
“अंकल नमस्ते ! मै
अंजू बोल रही हू बात करा दीजियेगा जरा सुमन से”
मेरा तुक्का लग गया था मुझे नहीं पता था सुमन ने आकर जब
हेल्लो किया था।
“और कैसी है सुमन
बस यही कहा था”
सोचा पहचान लेगी मुझको पर ये हो ना सका था।
बात यू ही क्लास की हुयी और मिल गया था सुकून
फिर यू ही महीनो में लेने लगा था ये प्यारा सा सुकून।
फिर यू ही कही वो
बचपन खो गया और मै भी जमाने की रेस में सो गया। शायद वो उसको मिलकर मै बता पाता की
वो अंजू नहीं एक अनजाना था। इस ज़िन्दगी की रेस में ऐसे मशगुल हो गए कभी हाई स्कूल
तो कभी इंटर के बोर्ड में खो गए। अब एक और ही युद्ध चल रहा था जीवन में, जद्दो जेहत अब कुछ पाने की या यू कहे
जिम्मेदारी कुछ निभाने की। वो भी खो गयी कही किसी सफ़र में और मै भी फस गया अपने ही
डगर में।
कहानी का अंश (इंस्टाग्राम वाला इश्क़ पुस्तक से)
लेखक : विशाल भारद्वाज (वैधविक)
पुस्तक की लिंक : इंस्टाग्राम वाला इश्क़